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सासाराम में बढ़ी सियासी गर्मी: जमानत पर रिहा हुए सत्येंद्र साह अब कर रहे नुक्कड़ सभाएँ, स्नेहलता कुशवाहा से सीधी टक्कर Political heat rises in Sasaram: Satyendra Sah, released on bail, is now holding street meetings, in direct competition with Snehlata Kushwaha

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सतेंद्र शाह 


रिपोर्ट: आर.बी.सी. चैनल न्यूज़ डेस्क | सासाराम

रोहतास जिले की सासाराम विधानसभा सीट इस बार बिहार चुनाव की सबसे दिलचस्प लड़ाइयों में से एक बन गई है।

एक ओर एनडीए की ओर से राष्ट्रीय लोक मोर्चा (RLM) प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा की पत्नी स्नेहलता कुशवाहा मैदान में हैं, तो दूसरी ओर राजद (RJD) के उम्मीदवार सत्येंद्र साह ने जमानत पर रिहाई के बाद फिर से चुनावी मैदान में पूरी ताक़त झोंक दी है।



जमानत के बाद नुक्कड़ों में जुटे साह

सत्येंद्र साह, जो नामांकन के बाद झारखंड में दर्ज एक डकैती केस में गिरफ्तार हुए थे, अब जमानत पर बाहर आ चुके हैं।

रिहाई के बाद उन्होंने बिना वक्त गंवाए नुक्कड़ सभाओं और जनसंपर्क अभियान की शुरुआत कर दी है।

गाँव-गाँव जाकर वे खुद जनता से मुलाक़ात कर रहे हैं और कह रहे हैं —

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स्नेह लता 


यह लड़ाई सिर्फ़ मेरी नहीं, सासाराम की इज़्ज़त और स्वाभिमान की है।

उनकी पत्नी तारा देवी, जो अब तक प्रचार की कमान संभाले थीं, अब उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर वोट मांग रही हैं।

कुशवाहा परिवार का ‘फैमिली कैंपेन’

वहीं दूसरी तरफ़, स्नेहलता कुशवाहा के लिए खुद उपेन्द्र कुशवाहा सासाराम में डेरा डाले हुए हैं।

उनका बेटा और बहू भी लगातार जनसंपर्क कर रहे हैं।

कुशवाहा परिवार विकास और महिला सशक्तिकरण” को मुख्य मुद्दा बताते हुए मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना और बुजुर्ग पेंशन में बढ़ोतरी जैसे सरकारी कदमों को प्रचार में भुना रहा है।

जातीय समीकरणों में उलझी सीट

सासाराम विधानसभा का जातीय गणित हमेशा से कुशवाहा समुदाय के इर्द-गिर्द घूमता रहा है, लेकिन 2020 में राजद ने बनिया समुदाय के उम्मीदवार को उतारकर सीट जीती थी।

इस बार भी आरजेडी ने बनिया समुदाय के सत्येंद्र साह पर दांव लगाया है, जबकि आरएलएम का प्रयास है कि एनडीए के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगाई जाए।

स्थानीय बनाम बाहरी बहस जारी

स्नेहलता कुशवाहा पर “बाहरी” होने का आरोप विपक्ष लगातार लगा रहा है, क्योंकि वे वैशाली जिले से आती हैं।

कांग्रेस नेता अली हुसैन ने टिप्पणी की —

जो गठबंधन ‘वोकल फॉर लोकल’ की बात करता है, वही बाहर की उम्मीदवार उतार रहा है — यह नारा अब खोखला लगता है।

उपेन्द्र कुशवाहा ने इसका जवाब देते हुए कहा कि

सासाराम का प्रतिनिधित्व हमेशा बड़े बाहरी नेताओं ने किया है — मुद्दा यह नहीं कि कौन कहां से है, बल्कि कौन काम करेगा।

जनता के सवाल अब भी वही — विकास कब होगा?

चुनावी वादों के बीच जनता का दर्द अब भी बरक़रार है।

शहर के व्यवसायी ओमप्रकाश अग्रवाल कहते हैं —

60 साल में यहाँ कोई नया गर्ल्स कॉलेज नहीं बना, पीने का पानी और अस्पताल की हालत बद से बदतर है। नेतागण सिर्फ़ जाति की बात करते हैं, ज़रूरत की नहीं।

प्रतिष्ठा बनाम संघर्ष की जंग

सासाराम की यह सीट अब उपेन्द्र कुशवाहा के राजनीतिक भविष्य और प्रतिष्ठा की परीक्षा बन गई है।

दूसरी ओर, जमानत पर रिहा हुए सत्येंद्र साह संघर्ष और स्थानीयता का चेहरा बनकर उभर रहे हैं।

दोनों के समर्थक दावा कर रहे हैं —

इस बार सासाराम में इतिहास बनना तय है, बस देखना यह है कि जीत किसकी झोली में गिरती है।

🗳️ निष्कर्ष:

सासाराम की लड़ाई अब सिर्फ़ दो उम्मीदवारों की नहीं रही — यह मुकाबला “बाहरी बनाम स्थानीय, जाति बनाम विकास और प्रतिष्ठा बनाम संघर्ष” की कहानी बन गया है।

दोनों पक्षों की रैलियाँ, नुक्कड़ और जनसंपर्क से पूरा क्षेत्र अब सियासी जोश में डूबा हुआ है।

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